सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्गों के खिलाफ हिंसा और उत्पीड़न को रोकने लिए एससी-एसटी एक्ट को लेकर अहम फैसला सुनाया है. एक मामले की सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने एससी-एसटी एक्ट के मामलों में आरोपी की अग्रिम जमानत पर कानूनी प्रावधानों को स्पष्ट करते हुए, बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला भी पलट दिया.
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने स्पष्ट किया है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत दर्ज केस में किसी भी आरोपी को अग्रिम जमानत तभी दी जा सकती है, जब स्पष्ट रूप से आरोपी के विरूद्ध प्रथम द्रष्टया कोई मामला न बनता हो. यानी पहली नजर में ही यह तथ्य साबित हो जाए कि आरोपी ने दलित समुदाय के प्रति कोई जातिगत अत्याचार या हिंसा नहीं की है.
एससी-एसटी एक्ट,1989 की धारा 18 का किया उल्लेख
पीठ ने एससी-एसटी एक्ट, 1989 की धारा 18 का उल्लेख करते हुए कहा कि यह प्रावधान स्पष्ट रूप से CRPC की धारा 438 (अग्रिम जमानत से संबंधित) को लागू नहीं करने के बारे में है और इसे धारा के तहत दायर मामलों को सुनवाई से बाहर रखने का प्रावधान करता है. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि एससी-एसटी एक्ट की धारा 18 आरोपी को अग्रिम जमानत देने पर रोक लगाती है.
इसके साथ ही पीठ ने कहा कि एससी-एसटी एक्ट यह सुनिश्चित करता है कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से आने वाले लोगों को उनके सिविल अधिकारों से वंचित न किया जाए और उन्हें अपमान और उत्पीड़न से बचाया जाए.
इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने 29 अप्रैल 2025 को बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा इस मामले में दिए गये फैसले को पलटते हुए, आरोपी को दी गई अग्रिम जमानत रद्द कर दी है.
क्या था मामला ?
मामला 2024 विधानसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र के धाराशिव जिले में हुई झड़प से जुड़ा है, जहां एक दलित परिवार पर हमले और जातिसूचक गालियां देने का आरोप था. नवंबर 2024 में दर्ज प्राथमिकी में सत्र न्यायालय ने आरोपी को जमानत देने से इनकार कर दिया था. इसके बाद आरोपी राजकुमार जीवराज जैन ने हाई कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ अपील दी थी, जिसे बॉम्बे हाई कोर्ट ने स्वीकारते हुए, आरोपी को राहत दी थी. इसके बाद शिकायतकर्ता किरण ने बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले के विरूद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी, जिसपर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने आरोपी की अग्रिम जमानत रद्द कर दी है.