सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (11 सितंबर) को राज्यपालों और राष्ट्रपति की भूमिका पर एक बेहद अहम मुद्दे पर सुनवाई पूरी कर ली है. मामला उस पुरानी बहस से जुड़ा है जिसमें सवाल उठता है कि राज्य विधानसभाओं से पास हुए बिल पर राज्यपाल या राष्ट्रपति कितने वक्त तक विचार कर सकते हैं और क्या उनके फैसले की कोई समय-सीमा तय हो सकती है?
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अगुवाई वाली पांच जजों की बेंच ने 10 दिन चली सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया. सुनवाई के दौरान जजों ने तीखे सवाल पूछे—अगर लोकतंत्र का कोई अंग अपने काम में नाकाम रहता है तो क्या अदालत हाथ पर हाथ धरे बैठ सकती है? हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि अदालतों का एक्टिव होना जरूरी है, लेकिन “ओवरएक्टिव” नहीं होना चाहिए.
केंद्र और राज्यों के बीच टकराव की गूंज
केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों के कामकाज पर कोर्ट द्वारा समय-सीमा थोपना “शक्तियों के पृथक्करण” के सिद्धांत के खिलाफ है. विपक्षी राज्यों ने इस पर जोर दिया कि राज्यपालों की चुप्पी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बिगाड़ देती है. यही वजह है कि तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, तेलंगाना, पंजाब और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य इस मुद्दे पर अदालत पहुंचे थे.
जल्द आ सकता है ऐतिहासिक फैसला
दरअसल, इसी साल 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपालों को “उचित समय” में फैसला करना चाहिए और संवैधानिक चुप्पी से लोकतंत्र को रोकना सही नहीं है. उसी फैसले पर विवाद के बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी. अब माना जा रहा है कि फैसला अगले दो महीने में आ सकता है, क्योंकि सीजेआई गवई का कार्यकाल 23 नवंबर को खत्म हो रहा है.
यह फैसला न सिर्फ राज्यपाल और राष्ट्रपति की संवैधानिक सीमाओं को साफ करेगा बल्कि केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन की दिशा भी तय करेगा. साफ है कि आने वाले वक्त में यह निर्णय भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में बड़ा मील का पत्थर साबित हो सकता है.