9 सितंबर 2025 का दिन नेपाल के इतिहास में एक बड़े राजनीतिक संकट के रूप में दर्ज हो गया, जब व्यापक जनाक्रोश और भीषण हिंसा के बीच नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा दे देते हैं. अब उनके देश छोड़कर भागने की खबरें भी सामने आ रही हैं, जिसके बाद नेपाल में संकट और गहरा गया है.
बात शुरू होती है 4 सितंबर 2025 से जब ओली सरकार के कुछ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बैन लगाने के फैसले के खिलाफ, हजारों की संख्या में लोग राजधानी काठमांडू की सड़कों पर उतर आते हैं. इसमें मुख्य रूप से स्कूल और कॉलेज के छात्र शामिल थे. हर गुजरते दिन के साथ ये आंदोलन बड़ा होता जा रहा था. लेकिन 8 सितंबर को इस प्रदर्शन हिंसक मोड़ लेने लगता है. जिसमें पुलिस की फायरिंग में 20 से ज्यादा प्रदर्शनकारियों की मौत हो जाती है. इसके बाद 9 सितंबर को नेपाल के हालात पूरी तरह विस्फोटक और बेकाबू हो जाते हैं. उग्र भीड़ नेपाल के संसद भवन, पीएम हाउस, राष्ट्रपति भवन और सुप्रीम कोर्ट में तोड़फोड़ तथा आगजनी कर देती है. कई मंत्रियों के घर हमला किया जाता है. जिसमें पूर्व पीएम की पत्नी समेत कुछ लोगों की मौत हो जाती है. 9 सितंबर की देर शाम तक आर्मी सबकुछ अपने कंट्रोल में ले लेती है. जिसके बाद धीरे धीरे हिंसा थमने लगती है.
नेपाल में ये जो कुछ भी हुआ वो बिलकुल अचानक था. महज 6 दिनों में प्रदर्शन, आगजनी, मौतें, इस्तीफे और सरकार का तख्तापलट हो जाना आश्चर्यजनक लगता है. विशेषज्ञ और विदेशी मीडिया नेपाल में डीप स्टेट की भूमिका और राजनीतिक साजिश की अटकलें लगा रहे हैं. तो नेपाल में जारी व्यापक हिंसक प्रदर्शनों और गहराते राजनीतिक संकट को बदलते जियो-पॉलिटिक्स से भी जोड़ा जा रहा है.
किस डीप स्टेट के इशारे पर हुआ नेपाल में तख्तापलट ?
कुछ दिनों पहले नेपाल की सरकार बड़ा फैसला लेते हुए देश में चल रही कई बड़ी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बैन लगाया था. जिसके बाद सरकार के खिलाफ लंबे समय से चल रही लोगों की नाराजगी अचानक भड़क गई. इनमें से ज्यादातर कंपनियां अमेरिका की हैं. वहीं नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को चीन की ओर झुकाव रखने वाला माना जाता रहा है. जुलाई 2024 में सत्ता में आने के बाद उन्होंने लगातार ऐसे कदम उठाए, जिसने नेपाल को अमेरिका और भारत सहित अन्य देशों से दूर किया और चीन के और करीब आये. वे पहले ऐसे नेपाली पीएम थे, जो शपथग्रहण के बाद भारत की आधिकारिक यात्रा पर भी नहीं आये थे. चाहे चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव हो या अन्य आर्थिक-व्यापारिक समझौते, नेपाल इन सबमें चीन के पक्ष में खड़ा दिखाई दिया.
वहीं बिगत कुछ समय से दुनिया में रूस और चीन के बढ़ते वर्चस्व ने अमेरिकी प्रभाव को झटका दिया था. ऐसे में नेपाल में हुए इस तख्तापलट के तार अमेरिकी इंटेलिजेंस सीआईए से भी जोड़ कर देखे जा रहे हैं, जिसने वहां सरकार के खिलाफ हुए इस व्यापक जन-विद्रोह को हवा दी.
साउथ एशिया के तख्तापलट और अमेरिका!
यह पहली बार नहीं है, जब किसी दक्षिण एशियाई देश में अचानक से उठे विरोध-प्रदर्शन ने इतना उग्र रूप धारण कर लिया हो कि सत्ताधारी पार्टी के नेता को देश छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा हो.
नेपाल से पहले श्रीलंका और बांग्लादेश में भी एकाएक सत्ता-परिवर्तन ने दुनिया को चौंकाया था. बांग्लादेश की शेख हसीना सरकार भी अमेरिकी विरोध के लिए जानी जाती थी. माना गया कि वहां भी आंदोलन के पीछे अमेरिका था.
2010–11 में हुए ‘अरब स्प्रिंग’ का उदाहरण लिया जा सकता है, जो ट्यूनिशिया से शुरू हुई जनविद्रोह की लहर थी, जिसने मिस्र, लीबिया, सीरिया, यमन सहित कई अरब देशों को हिला दिया था. बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और तानाशाही शासन के खिलाफ़ युवाओं और आम जनता ने सोशल मीडिया के ज़रिये बड़े पैमाने पर आंदोलन खड़े किए, जिससे कई देशों में शासक गिरे तो कुछ जगह गृहयुद्ध भड़क गया. अमेरिका ने इसे “लोकतंत्र की मांग” कहकर समर्थन दिया था.
नेपाल में ओली सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे. लोग सरकार से पहले से नाराज थे. ऐसे में सोशल मीडिया पर बैन ने जनभावना को भड़का दिया. इसके साथ ही नेपाल की राजनीति में स्थापित कई दशकों की राजनीति भी किनारे कर दी गई. फिलहाल जनता का गुस्सा मौजूदा सभी बड़े राजनीतिक दलों पर फूटा है. नये चेहरों को सत्ता सौंपने की मांग की जा रही है और अंदेशा जताया जा रहा है कि इस जनविद्रोह के पीछे अमेरिकी डीप स्टेट का हाथ है.