“एक मंत्र है , छोटा सा मंत्र, जो मैं आपको देता हूं. उसे आप अपने हृदय में अंकित कर सकते हैं और प्रत्येक सांस द्वारा व्यक्त कर सकते हैं. यह मंत्र है : ‘ करो या मरो. ‘ या तो हम भारत को आज़ाद कराएंगें या इस प्रयास में अपनी जान दे देंगे , अपनी गुलामी का स्थायित्व देखने के लिए हम जिन्दा नहीं रहेंगें” – महात्मा गांधी
8 अगस्त 1942, बॉम्बे (आज की मुंबई) का गोवालिया टैंक मैदान लोगों से खचाखच भरा था. लोगों को उम्मीद थी कि कांग्रेस के इस सत्र के बाद देश की आजादी को लेकर नई पहल की घोषणा होगी. महात्मा गांधी ने लोगों को संबोधित करते हुए एक मंत्र दिया ‘करो या मरो’. उस वक्त ये अनुमान लगाना मुश्किल था कि सभा में आए लोगों के अलावा देश के आम लोगों पर इस मंत्र का क्या असर होगा. लेकिन इतिहास बताता है कि महात्मा गांधी का दिया ये मंत्र आजादी की लड़ाई में बेहद निर्णायक साबित हुआ.
भारत छोड़ो आंदोलन जिसे अगस्त क्रांति भी कहा जाता है, कि कहानी बड़ी दिलचस्प है. तमाम शंकाओं, मतभेद और विरोध के बावजूद इस क्रांति ने अपना परिणाम तब हासिल कर लिया जब कमोवेश सभी नेतृत्वकर्ता जेल में थे.
कैसे रखी गई आंदोलन की नींव?
भारत छोड़ो आंदोलन की नींव 14 जुलाई 1942 को वर्धा में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में रख दी गई थी. कार्यसमिति के मसौदे में प्रस्ताव रखा गया कि अंग्रेजी हुकूमत पूर्ण स्वतंत्रता की मांग को नहीं मानती है तो देशव्यापी सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू होगा. हालांकि आंदोलन के समय को लेकर कुछ संशय भी था, लेकिन महात्मा गांधी भारत की आज़ादी के लिए इस निर्णायक आंदोलन को तत्काल आरंभ करने का निर्णय कर चुके थे.
आंदोलन की घोषणा और कांग्रेस नेतृत्व जेल में

जैसे ही आंदोलन का आह्वान हुआ, ब्रिटिश सरकार ने 9 अगस्त के तड़के ही महात्मा गांधी समेत सभी बड़े कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया. सबसे पहले गवालिया टैंक में भाषण देने वाले चारों नेताओं महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना आज़ाद की गिरफ्तारी हुई. महात्मा गांधी को पुणे स्थित आग़ा ख़ान महल में रखा गया और अन्य नेताओं को देश के अलग अलग जेलों में बंद कर दिया गया.
पार्टियों में आंदोलन को लेकर नहीं बनी एकराय
महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुए भारत छोड़ो आंदोलन को लेकर देश के बाकी राजनीतिक दल एकमत नहीं थे. भारत की आजादी से पहले अपने लिए अलग देश की मांग करने वाली मुस्लिम लीग ने इस आंदोलन का विरोध किया. एलेन हायेस मरियम ने अपनी किताब ‘गांधी वर्सेज जिन्नाह द डिबेट ओवर पॉर्टिशन’ में जिन्ना के भाषणों के हवाले से बताया कि 31 जुलाई को जिन्ना ने बॉम्बे में कहा था कि ‘असहयोग की यह नीति दरअसल मिस्टर गांधी और उनकी हिंदू कांग्रेस की अंग्रेज सरकार को ब्लैकमेल करने की योजना है’.
वहीं हिंदू महासभा भी इस आंदोलन के विरोध में थी. डॉ. प्रभु बापू अपनी किताब ‘हिंदू महासभा इन कलोनियल नार्थ इंडिया 1915-1930’ में लिखते हैं कि ‘उस समय हिंदू महासभा के अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर ने “अपने पदों पर बने रहें” शीर्षक से एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने देश भर के हिंदू सभासदों, जो नगरपालिकाओं, स्थानीय निकायों, विधानसभाओं के सदस्य या सेना में सेवारत थे, को अपने पदों पर बने रहने और किसी भी कीमत पर भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल न होने का निर्देश दिया था.
इस आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी का स्टैंड भी दिलचस्प है. आईपीएस राजीव अहीर अपनी किताब ‘आधुनिक भारत का इतिहास’ में बताते हैं कि ‘ यद्यपि कम्युनिस्ट पार्टी ने आंदोलन का बहिष्कार किया पर फिर भी स्थानीय स्तर पर सैकड़ों कम्युनिस्टों ने आंदोलन में भाग लिया’. यानी नेतृत्व और कार्यकर्ताओं में मतभेद था.
आम लोगों के हाथ में था आंदोलन
महात्मा गांधी ने आंदोलन के लिए लोगों को निर्देश दिये थे जिसमें हड़तालें, जुलूस, लगान आदायगी बंद करने, सेना में भरती भारतीयों को क्रांतिकारियों पर गोलियां न चलाने और राजा-महाराजाओं को जनता का साथ देने की अपील थीं. महात्मा गांधी ने लोगों को छूट देते हुए कहा था कि ‘अगर नेता गिरफ्तार कर लिए जायें, तो अपनी कार्रवाई का रास्ता खुद तय करें’.
जैसे ही महात्मा गांधी समेत सभी बड़े कांग्रेसी नेता बंदी बनाये गये, जनता में विद्रोह की ज्वाला भड़क गयी. आंदोलन उग्र हो गया. लोगों ने ब्रिटिश सरकार के प्रतीकों पर हमला बोला और सरकारी भवनों पर बलपूर्वक तिरंगा फहराना शुरू किया. बहुत से लोगों ने सरकारी नौकरियां छोड़ दी, छात्रों ने स्कूल-कॉलेजों में हड़तालें की और जुलूस निकाले. अहमदाबाद , जमशेदपुर , बम्बई और पूना में मजदूरों की हड़तालें हुईं.
इस आंदोलन की सबसे बड़ी बात थी, देश के कई जगहों पर समानांतर सरकारों की स्थापना होना. बलिया में चित्तू पांडे के नेतृत्व में स्थानीय जिलाधिकारी को हटा कर अपनी सरकार स्थापित की और जेल में बंद सभी कांग्रेसी नेताओं को रिहा कर दिया गया. तामलुक और सतारा में भी ऐसी सरकारें स्थापित की गई.
गांधीजी के उपवास से भड़क उठी आंदोलन की आग
समय के साथ आंदोलन कम होने की बजाए बढ़ता जा रहा था. ब्रिटिश सरकार महात्मा गांधी पर लगातार दबाव डाल रही थी कि वे आंदोलन में हो रही हिंसा की आलोचना करें, पर गांधी जी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया और ब्रिटिश सरकार की जनता पर दमनात्मक कार्रवाईयों के विरोध में फरवरी 1943 में 21 दिन का उपवास शुरू कर दिया. इससे लोगों में और आक्रोश फैल गया. ब्रिटिश वायरसराय लिनलिथगो ने इस आंदोलन की तुलना 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से किया था. वहीं सुभाष चंद्र बोस ने कहा था कि ‘भारत छोड़ो आंदोलन के साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नया अध्याय शुरू हुआ’
अंग्रेजों का दमन भी काम नहीं आया
इतने बड़े जनांदोलन की व्यापकता को देख कर डरी हुई ब्रिटिश सरकार ने क्रांतिकारियों पर कठोर कार्रवाइयां की. कहीं आंदोलनकारियों पर निर्ममता से लाठी चार्ज किया गया तो कहीं बीच चौराहों पर आंदोलनकारियों पर कोड़े बरसाये गये. समाचार पत्रों पर पाबंदी लगा दी गई.

ब्रिटिश सत्ता की इस दमनात्मक कार्रवाई में लगभग दस हजार लोगों की जान गयी और एक लाख से अधिक लोगों की गिरफ्तारी हुई. सरकार की इन क्रूरताओं के बाद भी जनता ने ब्रिटिश सत्ता के आगे झुकने से इंकार कर दिया. लोगों के अदम्य साहस और राष्ट्रभक्ति की भावना के आगे साम्राज्यवादी ब्रिटेन का नेतृत्व समझ चुका था कि भारत पर शासन करना अब असंभव है.
1945 आ चुका था. जर्मनी में हिटलर के अंत के साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म हुआ. विश्वयुद्ध में जीत के बावजूद ब्रिटेन में सत्ता परिवर्तन हुआ. चुनाव जीत कर आई लेबर पार्टी की तमाम घोषणाओं में सबसे अहम घोषणा थी भारत को स्वतंत्रता देने की. इसी समय भारत छोड़ो आंदोलन भी आधिकारिक रूप से खत्म किया गया. इसके बाद शुरू हुई भारत को आजाद करने प्रक्रिया जिसके तहत अंतत: 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश उपनिवेश से लंबे समय की गुलामी के बाद भारत आजाद देश बना.
इस तरह ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ भारत की स्वतंत्रता के इस लम्बे संघर्ष को अंतिम परिणति तक पहुंचाने की सबसे अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण कड़ी बन जाता है.